Tuesday, November 6, 2007

सफर की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे...

सफर की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे...



सफर की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे
चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे

ये क्या उठाए कदम और आ गई मंज़िल
मज़ा तो तब है के पैरों में कुछ थकान रहे

वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज लगता है
तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे

मुझे ज़मीन की गहराइयों ने दाब लिया
मैं चाहता था सर पे आसमान रहे

अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है
मगर ये बात हमारे ही दरमियान रहे

मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई
मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे

वो इक सवाल है फिर उसका सामना होगा
दुआ करो के सलामत मेरी जबान रहे।

- राहत इंदौरी

पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले...

पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले...



पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले
दस्तर खान मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है
मग़रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात
अंधे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले

मैं चाहता था खुद से मुलाकात हो मगर
आईने मेरे कद के बराबर नहीं मिले

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो
मुमकिन है वापस आओ तो वे घर नहीं मिले।

- राहत इंदौरी

शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे...

शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे...



शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे
कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे

पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे हैं
किस से उम्मीद ये की जाए कि साया दे दे

वक्त की संग-ज़नी नोच गई सारे नक़्श
अब वो आईना कहाँ जो मेरा चेहरा दे दे

दुश्मनों की भी कोई बात तो सच हो जाए
आ मेरे दोस्त किसी दिन मुझे धोखा दे दे

मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे

डूब जाना ही मुकद्दर है तो बेहतर वरना
तूने पतवार जो छीनी है तो तिनका दे दे

जिसने कतरों का भी मोहताज किया मुझको
वो अगर जोश में आ जाए तो दरिया दे दे

तुमको राहत की तबीयत का नहीं अंदाज़ा
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे।

- राहत इंदौरी

चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया..

चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया..


चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया
आईना सारे शहर की बीनाई ले गया

डूबे हुए जहाज़ पे क्या तबसरा करें
ये हादसा तो सोच की गहराई ले गया

हालाँकि बेज़ुबान था लेकिन अजीब था
जो शख़्स मुझसे छीन के गोआई ले गया

इस वक्त तो मैं घर से निकलने न पाऊँगा
बस इक कमीज़ थी जो मेरा भाई ले गया

झूठे कसीदे लिखे गए उसकी शान में
जो मोतियों से छीन के सच्चाई ले गया

यादों की एक भीड़ मेरे साथ छोड़कर
क्या जाने वो कहाँ मेरी तन्हाई ले गया

अब तो खुद अपनी साँसें लगती हैं बोझ सी
उम्रों का देव सारी तवनाई ले गया।

- राहत इंदौरी

Monday, August 20, 2007

A Drop of Blood - by great Shrinkhala Saxena

Inside my heart where my dignity lies,
Hidden from the polite world outside,
There's a rose which I once called love...
Bounded by the chains of vows I abide.

It was a rose, so passionate, so scarlet,
A divine emotion, so soft, so temperate.
Fumed by its fragrance I once felt,
A euphoric lad, so blessed, so fortunate.

Spellbound by the mania that I possessed,
Beauty also comes with a price,
As do flowers come with thorns,
I overlooked the thorns and paid the price.

I can still remember, very vividly,
The blood trickling through my fingers,
The scarlet turning to bloody red,
Even though the fragrance still lingers,

A thorn pricked, some blood was shed,
A heart was scarred, some tears were shed,
The thorn was there, the rose stood fine,
I also stood there, but the blood was mine.

Disheartened, and torn by the little thorn.
I stood there hopelessly alone,
As my life passed me by,
And with all the fragrance now gone.

There I pledged to myself then,
Not to be bled by any thorn again,
Let the scarlet be nothing but blood,
Let no fragrance entice my heart again.

I pledged to keep the rose in me,
Keep scarring my heart till eternity,
Nurturing it with my own blood,
To keep its thorn bleeding me.

So now I'm still there, Where I stood once,
With no fragrance, and the tears gone,
Wearing the smile, for the world polite,
Knowing that my life has already gone!

But still in my heart, where my dignity lies,
I nurture the rose which I once called love,
Scarring my heart and drying my tears,
But still I nurture this thing called love…..

Friday, August 17, 2007

बँटवारे का दर्द

अमरोहा से पाकिस्तान जाकर, कराची में बसे जमीलुद्दीन फ़रीदी के अनुभव
मेरी उम्र 76 वर्ष है और पैदाइश पश्चिमी उत्तरप्रदेश के शहर अमरोहा की है. मैंने तक़सीमे-हिंद का नज़ारा ख़ूब देखा. वर्ष 1946 में मैं उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद बोर्ड से इंटर का इम्तहान पास कर दिल्ली आ गया. भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय में आवेदन दिया और वहाँ मुझे बी श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गई. जिन सरकारी कर्मचारियों को भारत से पाकिस्तान आना था उन्हें पाकिस्तान के होने वाले वज़ीर-ए-आज़म लियाक़त अली साहब की कोठी से हवाई जहाज़ से यात्रा करने का टिकट दिया जाता था. जब मैं दिल्ली से कराची आने के लिए टिकट लेने पहुँचा तो रात हो चुकी थी और मुझे वहीं रात गुज़ारनी पड़ी. हुआ ये कि उसी रात उस कोठी के बराबर की दूसरी कोठी जिसे रानी ऑफ़ कल्सिया की कोठी कहा जाता था, में बम-विस्फोट हुआ. सभी डर गए, हमें रात जागकर गुज़ारनी पड़ी.
जमीलुद्दीन एक ट्रक में छिपकर अमरोहा पहुँचेबहरहाल, मुझे टिकट तो मिल गया लेकिन शहर के भीतर बहुत गड़बड़ थी. दंगे हो रहे थे और हमें कहा गया कि हवाई यातायात ज़ारी नहीं है और हमें अपने घर लौटना होगा. अब मसला ये था कि हम दिल्ली से यूपी में अपने घर कैसे जाएँ? एक दूधवाले के ट्रक पर सवार होकर घास के अंदर छिपकर किसी तरह से रात के अधेरे में अमरोहा पहुँचे. एक महीने के बाद बताया गया कि दिल्ली जाएँ और वहाँ से कराची पहुँचे. उस समय दिल्ली में ख़ासे दंगे हो रहे थे. आलम यह था कि सब्जी मंडी, पहाड़गंज और उससे लगे हुए करोलबाग और चूनामंडी के इलाक़े में बड़ी तादाद में क़त्ल हो रहे थे. शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाना मुश्किल हो गया था. लोगों को कई-कई रोज तक बिना खाए-पीए गुज़ारा कर रहे थे. एक ओर हिंदुओं और सिखों की उग्र भीड़ें नज़र आती थीं तो दूसरी ओर नारे लगाते मुसलमानों की आवाज़ सुनाई देती थी. इस बार जब मैं दिल्ली आया तो कराची के लिए टिकिट मिल गया और मैं पाकिस्तान पहुँचा. 'विभाजन क्या हुआ, दिल ही तक़सीम हो गए' पाकिस्तान पहुँचने के बाद मैं काफ़ी समय उद्योग मंत्रालय में रहा. फिर बेगम राना लियाक़त अली खाँ का निजी सचिव बना और 14 वर्ष उसी पद पर रहा. मेरे बहुत से रिश्तेदार-मित्र भारत में हैं लेकिन अब सब वीज़ा के मोहताज हैं. वीज़ा कभी मिल जाता है और कभी नहीं भी मिलता. ऐसा लगता है कि दिल-ख़ानदान सब बँट गए. तक़सीम क्या हुई, लोगों के दिल तक़सीम हो गए. अब तो आलम यह है कि लोग मिलने के लिए तरसते हैं लेकिन वीज़ा नहीं मिलता और भारत जाने की धुन में ही मर जाते हैं.
तक़्सीम क्या हुई, लोगों के दिल तक़सीम हो गए. अब तो आलम यह है कि लोग मिलने के लिए तरसते हैं लेकिन वीज़ा नहीं मिलता और भारत जाने की धुन में ही मर जाते हैं. तक़सीम ज़रूर हुई लेकिन सही मायनों में आज़ादी नहीं मिली
जमीलुद्दीन फ़रीदी
वीज़ा के मामले में बहुत सख़्ती है. हम भारत जाते हैं तो वहाँ के लोग शिकायत करते हैं कि पाकिस्तान से वीज़ा नहीं मिलता और जब हमें जाना होता है तो हमें भी ऐसी ही परेशानी पेश आती है. मैं नहीं मानता कि मुसलमानों को अपना मुल्क मिल गया. ऐसा होता तो पाकिस्तान में चारों ओर खुशहाली होना चाहिए थी. मेरा ख़्याल तो यह है कि तक़सीम ज़रूर हुई लेकिन सही मायनों में आज़ादी नहीं मिली. बँटवारा न होता तो शायद जैसा मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने कहा था -- हर चार-पाँच साल बाद एक प्रधानमंत्री हिंदुओं में से बनेगा, दूसरा मुसलमानों में से बनेगा. पाकिस्तान और बंग्लादेश को साथ मिलाकर हिंदुस्तान कितना बड़ा मुल्क हो जाता. ऐसा हो जाता तो भारत दुनिया पर राज कर रहा होता. दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी को मैं यही पैगाम देना चाहता हूँ कि जो इस देश का है वह इसका वफ़ादार बन कर रहे और जो उस मुल्क का है, वह उस मुल्क का वफ़ादार बनकर रहे.

-- बीबीसी हिंदी सेवा में प्रसारित --

Thursday, August 16, 2007

ध्वजा वंदना



नमो, नमो, नमो।
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नमो नगाधिराज - शृंग की विहारिणी!
नमो अनंत सौख्य - शक्ति - शील - धारिणी!
प्रणय - प्रसारिणी, नमो अरिष्ट - वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा - प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो!

हम न किसी का चाहते तनिक अहित, अपकार।
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।
सत्य न्याय के हेतु
फहर-फहर ओ केतु
हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!

तार-तार में हैं गुँथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।
सेवक सैन्य कठोर
हम चालीस करोड़
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान
वीर हुए बलिदान,
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिंदुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!

- रामधारी सिंह 'दिनकर'

पंद्रह अगस्त की पुकार


पंद्रह अगस्त का दिन कहता --
आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है।।

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई।।

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त
के बारे में क्या कहते हैं।।

हिंदू के नाते उनका दु:खसुनते
यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है।।

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया।।

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएँगे।।

उस स्वर्ण दिवस के लिए
आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें।।

- अटल बिहारी वाजपेयी
स्रोत : मेरी इक्यावन कविताएँ

Tuesday, August 14, 2007

राह भी तो साथ निभा रही है

घटता जा रहा है रास्ता
मंज़िल पास आ रही है,

मुसीबतें बढती जाती है
तान्हाईयॉ बाहें पसार रही है,

गिर गयी है उम्मीदे सारी
आशाएँ ही केवल अब साथ निभा रही है,

कदम उठते जाते है सहमे - सहमे
ना जाने किस्मत किसके पद - चिन्ह पर चले जा रही है,

थक गये लगते है ख्वाब
किस्मत भी रह रह कर साथ निभा रही है,

अंत दिखता नही ना मध्य नज़र आता है।

अभी तो आरम्भ का ही बिगुल
नज़रे कानों को सुना रही है,

लंबी है डगर अभी भी - जाना
जब फिसले मौके सारे,

तो क्या हुआ मैं तो हु साथ तेरे
और राह भी तो साथ निभा रही है,

राकेश कुमार
१३/११/२००१