Tuesday, July 31, 2007

हेमंत यायावर द्वारा लिखित

कभी चलते चलते मैं रुका
जब कुछ संशय हुआ

फिर कुछ सोच कर आगे बढा
जब कुछ संशय मिटा

कांटो भरी एक राह देख कर
फूलों की राह को जा पकडा

लेकिन फूलों ने ही मुझे छला

चोट खा कर जब मेरे विश्वास का सूरज ढला
तब पर्वत बन चुके ज़रोँ ने कहा

सीधे सपाट अंधेरों से हमेशा बेहतर है
उलझे हुए उजाले चुनो

हर चीज़ मिलेगी तुम्हे यहाँ, ऐ मुसाफिर
तुम अगर चुनौती चुनो

हेमंत यायावर

Monday, July 30, 2007

" मै क्यो लिखू ? "

क्या __जरूरी है,
लिखना तुम्है समझाने को

इतने नादान भी नही तुम कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।

क्या __माँ ममत्व लिखकर दर्शाती है,
नही _ वो तो कलापों से ममत्व झलकाती है ।

क्या __भंवरा लिखता है अपने अफसाने को,
नही _ वो तो केवल गुनगुनाता है प्रॆम दर्शाने को।

क्या __पतंगा लिखता है अपना प्रॆम किसी परवाने को,
नही _ वो तो सहर्ष जल जाता है अपना प्रॆम दर्शाने को।

तो मै क्यो लिखूँ तुम्हें बतलाने को
तुम भी तो इतने नादान नही कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।