कभी चलते चलते मैं रुका
जब कुछ संशय हुआ
फिर कुछ सोच कर आगे बढा
जब कुछ संशय मिटा
कांटो भरी एक राह देख कर
फूलों की राह को जा पकडा
लेकिन फूलों ने ही मुझे छला
चोट खा कर जब मेरे विश्वास का सूरज ढला
तब पर्वत बन चुके ज़रोँ ने कहा
सीधे सपाट अंधेरों से हमेशा बेहतर है
उलझे हुए उजाले चुनो
हर चीज़ मिलेगी तुम्हे यहाँ, ऐ मुसाफिर
तुम अगर चुनौती चुनो
हेमंत यायावर
Tuesday, July 31, 2007
Monday, July 30, 2007
" मै क्यो लिखू ? "
क्या __जरूरी है,
लिखना तुम्है समझाने को
इतने नादान भी नही तुम कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।
क्या __माँ ममत्व लिखकर दर्शाती है,
नही _ वो तो कलापों से ममत्व झलकाती है ।
क्या __भंवरा लिखता है अपने अफसाने को,
नही _ वो तो केवल गुनगुनाता है प्रॆम दर्शाने को।
क्या __पतंगा लिखता है अपना प्रॆम किसी परवाने को,
नही _ वो तो सहर्ष जल जाता है अपना प्रॆम दर्शाने को।
तो मै क्यो लिखूँ तुम्हें बतलाने को
तुम भी तो इतने नादान नही कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।
लिखना तुम्है समझाने को
इतने नादान भी नही तुम कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।
क्या __माँ ममत्व लिखकर दर्शाती है,
नही _ वो तो कलापों से ममत्व झलकाती है ।
क्या __भंवरा लिखता है अपने अफसाने को,
नही _ वो तो केवल गुनगुनाता है प्रॆम दर्शाने को।
क्या __पतंगा लिखता है अपना प्रॆम किसी परवाने को,
नही _ वो तो सहर्ष जल जाता है अपना प्रॆम दर्शाने को।
तो मै क्यो लिखूँ तुम्हें बतलाने को
तुम भी तो इतने नादान नही कि
बुझ ना सको मेरे पैमाने को ।
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