Monday, August 6, 2007

साहिर लुधियानवी की एक ग़ज़ल

भडका रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम
ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम

ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम

देगा किसी मक़ाम पे ख़ुद राहज़न का साथ
ऐसे भी बदगुमान न थे राहबर से हम

माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गये गुज़रे जिधर से हम।

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