Friday, August 17, 2007

बँटवारे का दर्द

अमरोहा से पाकिस्तान जाकर, कराची में बसे जमीलुद्दीन फ़रीदी के अनुभव
मेरी उम्र 76 वर्ष है और पैदाइश पश्चिमी उत्तरप्रदेश के शहर अमरोहा की है. मैंने तक़सीमे-हिंद का नज़ारा ख़ूब देखा. वर्ष 1946 में मैं उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद बोर्ड से इंटर का इम्तहान पास कर दिल्ली आ गया. भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय में आवेदन दिया और वहाँ मुझे बी श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गई. जिन सरकारी कर्मचारियों को भारत से पाकिस्तान आना था उन्हें पाकिस्तान के होने वाले वज़ीर-ए-आज़म लियाक़त अली साहब की कोठी से हवाई जहाज़ से यात्रा करने का टिकट दिया जाता था. जब मैं दिल्ली से कराची आने के लिए टिकट लेने पहुँचा तो रात हो चुकी थी और मुझे वहीं रात गुज़ारनी पड़ी. हुआ ये कि उसी रात उस कोठी के बराबर की दूसरी कोठी जिसे रानी ऑफ़ कल्सिया की कोठी कहा जाता था, में बम-विस्फोट हुआ. सभी डर गए, हमें रात जागकर गुज़ारनी पड़ी.
जमीलुद्दीन एक ट्रक में छिपकर अमरोहा पहुँचेबहरहाल, मुझे टिकट तो मिल गया लेकिन शहर के भीतर बहुत गड़बड़ थी. दंगे हो रहे थे और हमें कहा गया कि हवाई यातायात ज़ारी नहीं है और हमें अपने घर लौटना होगा. अब मसला ये था कि हम दिल्ली से यूपी में अपने घर कैसे जाएँ? एक दूधवाले के ट्रक पर सवार होकर घास के अंदर छिपकर किसी तरह से रात के अधेरे में अमरोहा पहुँचे. एक महीने के बाद बताया गया कि दिल्ली जाएँ और वहाँ से कराची पहुँचे. उस समय दिल्ली में ख़ासे दंगे हो रहे थे. आलम यह था कि सब्जी मंडी, पहाड़गंज और उससे लगे हुए करोलबाग और चूनामंडी के इलाक़े में बड़ी तादाद में क़त्ल हो रहे थे. शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाना मुश्किल हो गया था. लोगों को कई-कई रोज तक बिना खाए-पीए गुज़ारा कर रहे थे. एक ओर हिंदुओं और सिखों की उग्र भीड़ें नज़र आती थीं तो दूसरी ओर नारे लगाते मुसलमानों की आवाज़ सुनाई देती थी. इस बार जब मैं दिल्ली आया तो कराची के लिए टिकिट मिल गया और मैं पाकिस्तान पहुँचा. 'विभाजन क्या हुआ, दिल ही तक़सीम हो गए' पाकिस्तान पहुँचने के बाद मैं काफ़ी समय उद्योग मंत्रालय में रहा. फिर बेगम राना लियाक़त अली खाँ का निजी सचिव बना और 14 वर्ष उसी पद पर रहा. मेरे बहुत से रिश्तेदार-मित्र भारत में हैं लेकिन अब सब वीज़ा के मोहताज हैं. वीज़ा कभी मिल जाता है और कभी नहीं भी मिलता. ऐसा लगता है कि दिल-ख़ानदान सब बँट गए. तक़सीम क्या हुई, लोगों के दिल तक़सीम हो गए. अब तो आलम यह है कि लोग मिलने के लिए तरसते हैं लेकिन वीज़ा नहीं मिलता और भारत जाने की धुन में ही मर जाते हैं.
तक़्सीम क्या हुई, लोगों के दिल तक़सीम हो गए. अब तो आलम यह है कि लोग मिलने के लिए तरसते हैं लेकिन वीज़ा नहीं मिलता और भारत जाने की धुन में ही मर जाते हैं. तक़सीम ज़रूर हुई लेकिन सही मायनों में आज़ादी नहीं मिली
जमीलुद्दीन फ़रीदी
वीज़ा के मामले में बहुत सख़्ती है. हम भारत जाते हैं तो वहाँ के लोग शिकायत करते हैं कि पाकिस्तान से वीज़ा नहीं मिलता और जब हमें जाना होता है तो हमें भी ऐसी ही परेशानी पेश आती है. मैं नहीं मानता कि मुसलमानों को अपना मुल्क मिल गया. ऐसा होता तो पाकिस्तान में चारों ओर खुशहाली होना चाहिए थी. मेरा ख़्याल तो यह है कि तक़सीम ज़रूर हुई लेकिन सही मायनों में आज़ादी नहीं मिली. बँटवारा न होता तो शायद जैसा मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने कहा था -- हर चार-पाँच साल बाद एक प्रधानमंत्री हिंदुओं में से बनेगा, दूसरा मुसलमानों में से बनेगा. पाकिस्तान और बंग्लादेश को साथ मिलाकर हिंदुस्तान कितना बड़ा मुल्क हो जाता. ऐसा हो जाता तो भारत दुनिया पर राज कर रहा होता. दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी को मैं यही पैगाम देना चाहता हूँ कि जो इस देश का है वह इसका वफ़ादार बन कर रहे और जो उस मुल्क का है, वह उस मुल्क का वफ़ादार बनकर रहे.

-- बीबीसी हिंदी सेवा में प्रसारित --

1 comment:

Srik said...

Nice article. Thanks for sharing it Raks.

Its time we think differently and try to unite the partitioned minds of country men of both the lands. We are brothers in birth, divisioned by the ill-wishes of our law makers. Its no good to play the blame games on each other, even though our religious alignments are different, India has shown to the world that all religions can stay together with an unbound bondage. We have to show to the world that we can make a difference to the world. Had we not had a Pakistan, we would not have religious terrorism on the face of the world. Dont you think so?